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Didi Nilam anand ji |
बिहार का पलामू जिला(सम्प्रति झारखंड) अत्यंत घने जंगलों से आच्छादित था जिला मुख्यालय से लगभग 55 किमी दूर घने जंगलों के बीच मनातू अवस्थित था। गांव तो छोटा सा पर राय बहादुर का बैभव इस इलाके को नामचीन बनाये हुये था।
27 जुलाई 1952 को मौआर जगदीश्वर जीत सिंह और भूमिका देवी के घर एक नन्ही सी बच्ची का जन्म हुआ राजा सरीखे घर मे जन्म हुआ था तो राजसी ठाट बाट तो झलकना ही था सो नाम पड़ा राजमणि नीलम। नीलम तो ऐसे भी राजमणि होती है
लगभग साढ़े चार बजे इनकी मां को जब प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो उस कमरे में अनगिनत सांप के सपोले आ गए। उस दिन नागपंचमी जो थी।
भारतवर्ष में साँपो की पूजा का का यह विशेष दिन श्रावण महीने की पंचमी तिथि को मनाया जाता है इसी दिन मनसा देवी की पूजा भी की जाती है।
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Didi maa nilam anand ji |
कौन जानता था सर्पो और इंसानों से भरे इस कमरे में एक ऐसा मणि अवतरित होने वाला है जो आने वाले समय में अघ्यात्म का उदीयमान सितारा होगा शिव का अनन्य भक्त होगा उनका वरद शिष्य होगा।
छोटी उम्र से ही मौआर साहब नीलम आनंद को लेकर जंगल की ओर चले जाते घण्टो विदेशी कार में बैठाकर इधर उधर घुमाते। नन्हे कदमों से पूरे गढ़ को नापती कभी मईया आंगन कभी दालान तो कभी ठाकुरबाड़ी। बचपन से ही पूजा पाठ में रुचि देखते बनती थी। तुतली आवाज़ में कभी कविता पाठ करती कभी श्लोक तो कभी भजन गाती। इन्हें बुजुर्गो के मुख से रामायण, महाभारत तथा पुराणों की कहानियां सुनना बहुत पसंद था। इनकी की मां कहा करती की ये मेरी बेटी नही मेरा बेटा है।
अंगेजी शाशन में राय बहादुर की उपाधि प्राप्त एक वैभवशाली परिवार में इनका जन्म हुआ था पिता की चौदह कोस की ज़मींदारी थी फलतः दरबार में दूर दराज से साधुओं, अघोरियों और झाड़ फुंक करने वाले तांत्रिकों का आना जाना लगा रहता था।
इन सब से बात करना इन्हें अधिक रुचिकर लगता था। परिजनों ने जंगल के तांत्रिकों और ओझाओं के प्रति ऐसा आकर्षण से आशंकित होकर गंडे और ताबीजों की पूरी माला ही इनके गले में पहना दी थी जो आदिम युग की सम्भ्रान्त महिला का भान कराती थी।
मसनोडीह सम्प्रति कोडरमा जिला का एक गांव से नाना बाबू केदारनाथ सिंह आये थे। उनकी वहां अभ्रक की खान थी जिले के बड़े पूंजीपतियों में उनका नाम शुमार होता था। माँ भूमिका देवी की इच्छा थी कि इन्हें शिक्षा के लिए हजारीबाग भेज दिया जाय सो इन्हें प्रारम्भिक शिक्षा के लिये नाना के साथ ही हजारीबाग भेज दिया गया। हजारीबाग आने के बाद एक इंग्लिश स्कूल में इनका दाखिला हुआ। लेकिन पढ़ाई में रुचि यहां भी पैदा नही हुई लगभग दो वर्ष बाद इन्हें पुनः मनातू ले आया गया। घर पर ही एक शिक्षक रख दिया गया जो आते और पढ़ा कर चले जाते।
जिस उम्र में बच्चे खिलौने से खेलते है नीलम आनंद मिट्टी के देवताओं की मूर्ति गढ़तीं और पूजा करतीं। माँ लाख समझाने की कोशिश करतीं लेकिन सब बेकार।
इन्हें तो बस एक ही धुन सवार रहता।
मौआर साहब ने अपनी फुलवारी में अनेक प्रकार के फूल गाछ और लता गुल्म लगाए थे। नीलम आनन्द फुलवारी से पुष्प तोड़कर माला बनाती और देव् मूर्तियों पर चढ़ातीं लेकिन ये सब उन्हें लुक छिप कर करने पड़ते क्योकि घर के लोग इसे पसन्द नही करते थे।
माता पिता को लगा कि विवाहोपरांत ये सांसारिक भाव बंधनो में बंध जाएंगी और इनकी ये असामान्य आदते भी छूट जाएंगी। फलतः 22 मई 1972 को हरिन्द्रानंद जी के साथ इनका विवाह सम्पन्न हुआ। हरिन्द्रानंद जी के पिता श्री विश्वनाथ सिन्हा पलामू जिले में ही जिला शिक्षा पदाधिकारी के रूप मे पदस्थापित थे।
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Didi maa nilam anand ji |
अब शुरू हुई इनकी आध्यात्मिक यात्रा एक ऐसी यात्रा जिसे देश काल और परिस्थितियों म्लान नही कर सकी। हरिन्द्रानंद जी ने जब शिव को अपना गुरु बनाया तब उन्होंने सर्वप्रथम अपनी पत्नी नीलम आनन्द को ही बताया। इनका मानना था कि प्रचलित पूजा पद्धति वर्तमान परिवेश में प्रतिकूल होने के कारण वैयक्तिक समस्याओं और संकीर्णताओं को दूर करने में असमर्थ प्रतीत हो रही हैं।
भक्ति मे भक्त का कर्तव्य बनता है कि वह अपने आराध्य को प्रसन्न कर मनोनुकूल फल प्राप्त करे गुरु शिष्य परम्परा में गुरु का दायित्व होता है कि वह शिष्य में अपना ज्ञान अपनी शक्ति का आरोपण करे। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जड़ता और अज्ञानता से मुक्त कर गुरु शिव की यथार्थ सत्ता से अवगत कराने के निमित हरिन्द्रानंद जी एवं नीलम आनन्द ने लोकमानस में एक नई चेतना का संचार किया यही चेतना समय के प्रवाह के साथ साथ घनीभूत होती गई और एक विशाल जनसमूह का रूप धारण कर लिया जो आज शिव शिष्य परिवार की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।
अब नीलम आनंद को महादेव के गुरु स्वरूप की चर्चा और जनमानस से उसके जुड़ाव के अतिरिक्त कुछ नही सूझता।
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Didi maa nilam anand ji |
अपनी शारिरिक अस्वस्थता के बावजूद वो गुरु शिव की चर्चा करती। उनकी चर्चा से प्रभावित जन सामान्य शिव को गुरु मानने की दिशा मे अग्रसर होने लगा। लोगों ने अनुभव किया कि उनकी समस्याओं का समाधान हो रहा है। लौकिक मनोरथ भी पूरे हो रहे है।
समय सरिता के प्रवाह के साथ साथ उनका स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा।
उनकी दोनों किडनी काम करना बंद कर दी। फिर भी वे दूसरों के दर्द में दुखी होती और खुशी में खुश होती।अपने रोग की चिंता न करते हुए दुसरो को शिव गुरु से जोड़ती रहती। हरिन्द्रानंद जी उनके स्वास्थ्य का हवाला देते हुए उन्हें समझाते
1 टिप्पणियाँ
सुन्दर जानकारी दिऐ आपने..
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