शिव शिष्यता की पृष्ठभूमि उद्भव और विकास.??

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श्री हरीन्द्रानन्द जी का जन्म 31 अक्टूबर सन 1948 विक्रम संवत 2005 कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को सिवान महाविद्यालय में व्याख्याता पद पर कार्यरत स्वर्गीय डॉ० विश्वनाथ सिन्हा एवं स्वर्गीय राधा देवी के, बिहार के सिवान जिले के, अमलोड़ी गाँव स्थित प्रथम संतान के रूप में हुआ । 
सुबह जन्म हुआ और शाम में स्वतः मनाई गयी पूरे देश में दीपावली ।
 हरीन्द्रानन्द जी की प्रखर बौद्धिक क्षमता के बावजूद पठन-पाठन में रूचि थोड़ी कम थी ।
 बाल्यकाल की स्वभावगत प्रवृतियों के अनुरूप जब बच्चे खिलौने से खेलते हैं, 
ये जादू - टोना का खेल खेलते, भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र की बातें करते। 
कभी वेद, उपनिषदों, पुराणों की कहानियां सुनाते, कभी आसन मारकर घंटों बैठे रहते ।
 कभी टीन में पानी के पाइप का साइफन बनाते और शीशे से मढ़ी शिव की तस्वीरों पर शिवलिंग जैसे पानी गिराया करते, 
थोड़ी देर में तस्वीर गलकर गिर जाती।
22 मई 1972 को 24 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह तत्कालीन बिहार के पलामू जिले के एक समृद्ध एवं संभ्रांत परिवार में मौआर जगदीश्वर जीत सिंह एवं भूमिका देवी की सुपुत्री राजमणि नीलम के साथ संपन्न हुआ । 
नियति स्वयं मानव जाति का इतिहास रचती है । 
गृहस्थ जीवन हरींद्रानन्द के साधक जीवन का साधन बनकर आया न की बाधक । दीदी राजमणि नीलम आनंद भी रूचि व्रत, त्यौहार, उपासना, आराधना में थी ।
 जिन्होने इनकी आध्यात्मिक यात्रा में कटीले-पथरीले रास्ते पर कंधे से कंधा मिलाकर चलने का संकल्प लिया। 
माना जाता है की आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करने हेतु किसी योग्य गुरु की आवश्यकता पड़ती है उन्होंने अपनी इस यात्रा में स्वनामधन्य गुरुओं का सन्निध्य प्राप्त किया किन्तु उनके निकट जाने पर इन्होंने जाना कि इन गुरुओं की स्थिति भी उन बरसाती नदियों की तरह ही होती है
 जिसकी गहराई दूर से अधिक दीखती है किन्तु नजदीक जाने पर अंदाज लग जाता है। जब कोई सत् पथ पर बढ़ना चाहता है,
 सिद्धि के लिए प्रयास करता है तो बाधक शक्तियाँ किसी-न-किसी रूप में विघ्न पैदा करती हैं । 
जब इन्हें बोध हुआ कि शिव वेशधरी ये शक्तियाँ निम्न स्तर का आचरण करती हैं तो इनका विश्वास टूटने लगा और श्रद्धा पूरी तरह खंडित हो गई । 
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अब अपनी सीमा में उपलब्ध शरीरी गुरुओं, तांत्रिकों, घुमक्कड़ औघड़ों का साथ मन को रास नहीं आ रहा था । मन पूरी तरह हताश, क्लांत हो चुका था । शायद यह पुराने युग की समाप्ति और नए युग की शुरुआत का संकेत ही था । 
अनवरत श्मशान यात्रा के कारण इनका संपर्क श्मशान की कुछ ऐसी शक्तियों से भी हो गया था जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में लोग भूत-प्रेत की संज्ञा देते हैं । 
विडंबना तो यह थी की उनके समक्ष आने वाली ये शक्तियां शिव के वेशभूषा में प्रकट होती तथा तरह-तरह की साधना के लिए इन्हें प्रेरित करती । 
ये उन शक्तियों को शिव की शक्तियां मानकर श्रद्धा देते थे और उनके बताए रास्ते पर चलते थे । यह साधारण बात है कि साधु का वेश धारण करने से कोई साधु नहीं हो जाता । प्रेतादि शिव के रूप में प्रकट हों तो वे शिव नहीं होंगे ।
 छद्दम वेश से कुछ दिनों तक किसी को बेवकूफ बनाया जा सकता है किन्तु एक-न-एक दिन स्थिति स्पष्ट हो जाती है ।नवम्बर 1974  में इसी विषाद की अवस्था में निस्तब्ध रात की शून्यता ने आत्मदीप्त चेतना का प्रस्फुटन किया कि गुरु अगर परब्रह्म है
 तो स्वयं परब्रह्म गुरु क्यों नहीं हो सकता? उन्हें वह श्लोक याद आया जिसे पाठशाला में याद कराया गया था :-"गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, र्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः" गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु महेश्वर है
 और गुरु साक्षात् परमात्मा है । उन्होंने तत्क्षण परमात्मा शिव को गुरु मान लिया और तीन शर्ते रखी कि:-१- पहले के गुरुओं से सीखा हुआ अब नहीं करेंगे  अब जो शिव बताएंगे वह करेंगे ।
२- अपने गुरु से  की अगर आप साधु के वेश में आएंगे तब भी आपको को गुरु नहीं मानेगे ।
३ :- यदि आप महादेव के फोटो वाले रूप में आएंगे तब भी आप से नहीं सीखेंगे । और अपने संकल्प और अपनी शर्तों पर  खड़े रहे  बहुत सी अड़चनें आई किन्तु साहब श्री का एक स्वभाव है कि रिश्ता बना लिया तो बना लिया जो होगा देखा जाएगा और गुरु की दया से  1975 में मुजफ्फरपुर तुर्की ट्रेनिंग कॉलेज के हाते में  वायु मार्ग से  नमः शिवाय मंत्र की  प्राप्ति हुई और कालांतर में घटनाओं का कुछ ऐसा क्रम चला कि आरोपित एवं अर्जित संकाय निर्मूल होती गई। 
आध्यात्मिक आह्लाद ने अध्यात्म में आ गई संक्रांति से प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त करने की अंतः प्रेरणा जगायी।प्रत्येक व्यक्ति को शिव का शिष्य होने के लिए प्रेरित करने का दृढ़ निश्चय संकल्पित होता गया और तब जाना की वैचारिक तल पर हम सबों तक आई सूचना की शिव गुरु हैं
 एक यथार्थ है 1980 के दशक से साहब श्री हरिंद्रानंद जी ने यह बात आम जनमानस के बीच कहना शुरू किया । 
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1983 में मधेपुरा सिंघेश्वर मंदिर में दया  का सूत्र अनुभूत हुआ।1986 में बेगूसराय में भोर के समय गुरु आदेशित कर्म अनुभूत हुआ एक अदृश्य आवाज के रूप में साहब से कहा गया की हरेंद्र जो तुम करते हो वह लोगों को करने को कहो साहब ने कहा मैं जो करता हूं|
वही लोगों को करने को कहता हूं आवाज ने कहा तुम असत्य बोलते हो साहब ने तत्क्षण पलट कर जवाब दिया मैं महादेव का चेला हूं झूठ नहीं बोलता आवाज ने पलट कर पूछ लिया  कि क्या करते हो साहब के मुंह से कहा गया  कि मैं लोगों को  शिव का  शिष्य  बनाता हूं आवाज ने कहा करने को क्या कहते हो  साहब चुप रह गए क्योंकि उन दिनों साहब करने को साधना बतलाते थे  और खुद शिव गुरु चर्चा करते थे 
 आवाज ने फिर से कहा हरेंद्र जो तुम करते हो वह लोगों को करने को कहो  यानी गुरु का ही आदेश हो गया  कि दूसरों को भी कहो वह भी दूसरों को शिव शिष्य बनाएं और आम जनमानस में लागू किया गया कि शिव मेरे गुरु हैं 
आपके भी हो सकते है और शुरू हुई शिव शिष्यता का विकास और व्याप्ति। 

आज उदाहरण के तौर पर  करोड़ों लोग  साहब के बताए हुए रास्ते पर चलकर  शिव के शिष्य के रूप में  जीते जागते उदाहरण हैं हम आप  साहब के प्रति  कृतज्ञ हैं  ऋणि हैं। रहती दुनिया तक यह जगत  इस बात में साहब श्री करणी रहेगा ऐसे महा मानव को मेरा कोटि कोटि नमन🙏

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