शिव शिष्यता क्या है.? What is Shiv Sishyta.?


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साहब श्री हरिन्द्रानंद जी

खुद को जानने का,उस खुदा को जानने का और उस खुदा की खुदाई को जानने का सरल और सुगम साधन है शिव की शिष्यता,,,,,,,, शिव ही शिव है 
दूसरा कोई नहीं आओ,चलें शिव की ओर…..मांडूक्योपनिषद का कथन है :-“इच्छा मात्र प्रभो सृष्टि”यानी उस परमात्मा की स्वतंत्र इच्छा से यह जीव और जगत और प्रकृति की सृष्टि हुई ,महेश्वर शिव निराकार परब्रह्म के रूप में 6 नियामिक शक्तियों के धारक है। 
इक्षा,ज्ञान,क्रिया,सत,चित,आनंद निराकार परब्रह्म रूप में उस परमात्मा को सच्चिदानंद कहा है। 
उस परमात्मा की 6 नियामिक शक्ति जीव,जगत और प्रकृति में क्रियान्वित हैं 
उनकी प्रकृति स्वयं शक्ति का रूप है:- इच्छा से सृष्टि,ज्ञान से पालन,क्रिया से संहार,चित् से तिरोभाव,आनंद से अनुग्रह। एक नियामिक शक्ति “सत्” चल अचल रूप से उस निराकार परब्रह्म में विलीन रहती है। 
जिस रूप में वह परमात्मा प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं उनकी छट्टी शक्ति जिसको सत् कहा गया जिसको तंत्र कहा गया,तन्त्र मूलतः शिव और शक्ति का परस्पर संवाद है ,प्रेम है
 जिसको अध्यात्म में प्रेम,साहित्य में तंत्र और विज्ञान में गुरुत्व बल कहा गया जो समस्त सृष्टि को एक दूसरे से बांधे हुए है ।
जो 5 शक्ति क्रियान्वित हैं:-सृष्टि मिट्टी तत्व में,पालन जल तत्व में,संहार अग्नि तत्व में,तिरोभाव वायु तत्व में,अनुग्रह आकाश तत्व में, यानी यह पांच शक्ति : इक्षा,ज्ञान,क्रिया,चित,आनंद पांच तत्व में रूपांतरित होकर क्रियान्वित होती हैं 
इन्हीं पांच तत्वों को क्षिति जल पावक गगन समीरा कहा गया। इन्ही 5 शक्तियों के धारक के रूप में महेश्वर शिव को चिदानंदमूर्ति कहा गया जो उनका गुरु स्वरूप है 
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आदिगुरु शंकराचार्य जी कहते हैं :- नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ति , नमस्ते नमस्ते चिदानंदमूर्ति। विभो विश्वमूर्ति के रूप में वह परब्रह्म निराकार परमात्मा हैं,चिदानंदमूर्ति रूप में वह महेश्वर शिव गुरु पद धारित करते हैं 
यानी वह परमात्मा अपनी स्वतंत्र इच्छा से पांच तत्व 3 गुण सतोगुण,रजोगुण,तमोगुण और एक शिव रूपी जीव के रूप में रूपांतरित होते हैं
 वह मूल परमात्मा मूल कर्ता के रूप में सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्य ऊर्जा है उसी परम चैतन्य ऊर्जा की चेतना जीव और जगत के रूप में रूपांतरित होती है और उसी के भीतर चलती है शक्ति और जगत सृष्ट होता है
 उसी के भीतर क्षरण होता है शक्ति का। उस परमात्मा की इच्छा के दो अभिभाज्य पक्ष हैं:- एक उनका सिसृक्षा यानी सृष्टिइच्छा जिसका प्रतिफल यह व्यक्त अव्यक्त जगत है 
सृष्टिइच्छा भाव में जगत की सृष्टि,पालन और संहार करते हैं। उनकी इच्छा का दूसरा पक्ष:- उनकी अनुग्रह शक्ति से सृजित होता है
 जो उनका करुणा भाव है,दया भाव है,गुरु भाव कहलाता है। करुणा भाव के तहत वह परमात्मा के रूप में समस्त सृष्टि से जुड़ते हैं । 
किंतु दया भाव यानी गुरु भाव मैं वह परमात्मा सापेक्ष हैं जो मात्र अपने शिष्य से जुड़ते हैं यही उस परमात्मा का गुरु पद (गुरु तत्व)हैं।
 समझने की कोशिश अगर की जाए उस परमात्मा ने स्वतंत्र इच्छा की कि में एक से अनेक हो जाऊं और वह शिव जीव और जगत के रूप में रूपांतरित हुआ।
 वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा जब भी कुछ इच्छा करेंगे तो उससे सूक्ष्म तो हो नहीं सकते अब जब भी वहां से चलने की इच्छा होगी,कुछ करने की इच्छा होगी तो स्थुल में ही आना होगा यानी निराकार से साकार की ओर आना होगा ।शिव ने इच्छा की तो वह जीव बना,वही शिव गुरु हैं 
गुरु भाव में दया करते हैं तो जीव फिर से शिव की ओर चलता है 
शिव बनता है,शिव में एकमेक होता है,अपने मूल स्रोत में वापसी करता है। इसलिए भटकने की आवश्यकता नहीं है शिव से अपने स्थायी संबंध स्थापित करने की आवश्यकता है
 गुरु अपने शिष्य को परमात्मा शिव से जोड़ने का कार्य करते हैं वही शिव गुरु भी हैं।
आइये, भगवान शिव को अपना गुरु बनायें।।

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