आइये,भगवान शिव को अपना गुरु बनायें ।
कोई भी गुरु अपने शिष्य में अपने गुणों को  उतार कर  उसे गुणों से परिपूर्ण करते हैं ।
आज का मानव  पंचम कार में लिप्त होने के कारण  अपने मानवीय गुणों से ही वंचित हो गया है ।
महेश्वर शिव  गुरु हैं  
और वह प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं ,
समस्त विसंगतियों में भी संगति की स्थापना है ।
 साहब श्री शिष्यानुभूति की में लिखते हैं  
 "शिव भाव के शिखर की तलहटी में ही मानव की समस्त संकीर्णतायें तिरोहित हो जाती हैं "गुरु शिष्य के जीवन मे बोधात्मक समझ देते हैं
 जिसे (आध्यत्मिक ज्ञान  )कहते हैं । स्वयं के बारे में बोधात्मक समझ न होने के कारण हम अपनी अल्पकालिक यात्रा को स्थाई जीवन (दीर्घकालिक)समझ सांसारिक सुखों की चाहत में लंबी लंबी योजना तो बनाते हैं 
और भोग भोगने के बजाय स्वयं भुक्त होते रहते हैं।और अपनों की चिंता में अपनी यात्रा विस्मृत हो जाती हैं ।गुरु इस विस्मृत हुई यात्रा की स्मृति कराते हैं समझ देते हैं ।और शिष्यात्मा का मन मूल स्वभाव में आकर अपने मुख्य उद्देश्य की ओर (मूल श्रोत परमात्मा) की ओर चलने के क्रम शिष्य मन में धरती का आकर्षण न्यून होता रहता हैं ।
दुःख में भी सुख की अनुभूति होती हैं और जगत का आकर्षण उसे प्रताड़ित नही करता है ।
वह भोग भोगता हैं भुक्त नही होता ।
उसमें ये समझ गुरु की दया आ गई की जागतिक भोग की व्यवस्था भोगने के लिए हैं, स्वयं भुक्त हो जाने  के लिये नही ।(शनैः शनैः)शिवगुरु से आया ज्ञान जीने की कला सिखाता है। 
और जैसे ही शिष्य में अवस्थीत व्यक्तित्व को अपना मूल बोध होता है 
वह शिवोन्मुख होने लगता है
 अपने मूल उद्देश्य की ओर चलने लगता है जीव में अवस्थित चेतना उस परम चेतना की तलाश करती है वह अपने सर्वोत्तम पक्ष की ओर चल पड़ती है
 और शिष्य में  अवस्थित जीवात्मा  का सर्वोत्तम पक्ष शिव होना या शिव की ओर चलना या शिव में एक मेक होना ही है और यह गुरु आश्रय में ही संभव है।
 कोई भी गुरु अपने शिष्य को अपने जैसा बनाते हैं महेश्वर शिव गुरु हैं 
तो अपने शिष्य को निसंदेह शिव बनाएंगे शिव भाव में लेकर आएंगे। 
शरीर से नहीं विचारसे,भाव से,व्यवहार से,आचरण से,कृत्यसे  शिव बनाएंगे और जब भी कोई शिव का शिष्य होगा वह अपने गुरु की ओर से चलेगा और जगत को अपने गुरु की ओर लेकर चलेगा । 
जैसे हमारे साहब श्री।"आओ चलें शिव की ओर "
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