मानव अपनी प्रबल जागतिक प्रवृतियों के वशीभूत है.?

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आज मानव अपनी प्रबल जागतिक प्रवृतियों के वशीभूत है। 
सुख के साधन सीमित हैं 
और सुख पाने की लालसा असीम। अतएव हताशा, निराशा, भय, कुंठा और संत्रास से त्रस्त व्यक्ति हृदयहीन आत्मघाती पगडंडियों पर चल पड़ा है । 
शरीर और मन रुग्ण है और आत्मा के तल पर निविड़ अन्धकार । शरीर के स्वस्थ होने के उपाय हैं 
किन्तु मन का रोग लाइलाज हो गया है । 
मन जब रोगी होगा तो शरीर को अस्वस्थ करेगा ही । 
आज व्यक्ति का मन प्रबल पाशविक प्रभाव से पीड़ित होकर स्वहित में लगा है ।
 फलतः समाज टूटने की स्थिति में है । आज व्यक्ति के मन को आत्मा के तल पर विकसित करने की आवश्यकता है ताकि मानव मन संकीर्णताओं से निवृति पा सके ।

वे कौन से लक्षण हैं जिनके आधार पर मानव को अन्य जन्तुओं से अलग समझा जाता है । 
मान्य है कि मनुष्य विवेकशील प्राणी है । 
विवेकशीलता वह लक्षण है जिससे अन्य प्राणियों से इसे अलग किया जाता है ।
 विवेकशीलता का अर्थ क्या है ? 
उचित - अनुचित, पाप - पुण्य, स्वार्थ - परमार्थ , आत्म - अनात्म में भेद करने की क्षमता को विवेक शक्ति कहा जाता है । एक और लक्षण मनुष्य में है जिसे मूल मानवीय गुण के नाम से जाना जाता है ।
 मनुष्य के अंदर मूल मानवीय गुण है
 संवेदनशीलता: दूसरे के सुख - दुःख में भाग लेने की क्षमता।

वर्तमान कालखंड में आये दिन की घटनाएं यथा नृशंस-हत्याएं, सामूहिक बलात्कार, आतंकवाद यह सोचने के लिए विवश करता है
 कि मनुष्य के शरीर में दीखने वाला आदमी क्या सचमुच मानव कहलाने योग्य है ? 
निश्चय ही आज का मानव शरीर से मानव दीख रहा है 
किन्तु उसके अंदर मानवीय गुणों का इस हद तक पतन हो चुका है कि उसे जानवर कहना भी जानवर का अपमान होगा ।

सामयिक कालखंड में इस बात के पर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर यह कहना अनुचित न होगा कि आज का आदमी भौतिकवादी मान्यताओं पर पनपी सुखवादी, उपोयोगितावादी एवं उपभोक्तावादी आत्मघाती पगडंडियों पर तेज़ी से भाग रहा है ।

जगतगुरु शिव और उनकी शिष्यता की परिकल्पना अति प्राचीन है । 
भारत के पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर प्रान्त में एक सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ जिसे प्रथम उत्खनित स्थल के नाम पर हड़प्पा सभ्यता के नाम से अभिहित किया जाता है । 
तत्कालीन समय में पशुपति के नाम से एक देवता की आराधना प्रचलित थी । वही पशुपति वैदिक काल के महान प्रारंभिक ग्रन्थ ऋग्वेद में रूद्र के नाम से जाने गए । 
कालांतर में अथर्ववेद में रूद्र को महादेव, शिव, शम्भु आदि उपाधियों से अलंकृत किया गया । 
यजुर्रवेद में इनकी महिमा में और वृद्धि हुई ।
 यहाँ उन्हें पशुपति, कृतिवासः, गिरीष, त्र्यम्बक, नीलकंठ, शिव आदि नामों से संबोधित किया गया है ।

 यहाँ रूद्र के पांच स्वरूपों ईशान, तत्पुरुष, अघोर, सद्दोजात, वामदेव, का उल्लेख है । शतरुद्रीय सूक्तों में रूद्र और शिव एकाकार प्रतीत होते हैं | 
इस वेद में शिव का सौम्य और भयावह दोनों स्वरूप अन्य वेदों की तुलना में अधिक महिमामंडित देखने को मिलता है । 
वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनषिदों एवं सूत्र ग्रंथों, अन्यान्य प्रामाणिक ग्रंथों में शिव के आदि गुरु एवं जगत गुरु के रूप में स्थापित किये जाने का प्रमाण मिलतें हैं ।

मनुष्यमात्र की चेतना के परिमार्जन एवं आध्यात्मिक प्रेम-पूर्ण उन्नयन के लिए शिव गुरु शिष्यता को अपनाने की विधा के प्रवर्तक साहब श्री हरींद्रानन्द जी एवं दीदी श्रीमती नीलम आनंद जी हैं । 
जिनके अनुसार विश्व के वितान पर अध्यात्म के प्रादुर्भाव एवं मानव सृष्टि के अभ्युदय हेतु जगतगुरु महेश्वर शिव की जन-जन के लिए गुरु स्वरुप में उपलब्धता ही एकमात्र विकल्प है ।
आइये भगवान शिव को अपना गुरु बनाये !
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