इस जगत मॆ विसंगतियां है !
लोगो का विचार ( प्रवृतियाॉ) विभिन्न है !
ये सारी विसंगतियां एवं विभिन्नताऎ उस ईश्वर की मात्र इक्षा से उत्पन्न है
पर सृष्टि कर्ता परमात्म समस्त विसंगतियों कॊ धारित करने के कारण स्वयंमॆ संगति की स्थापना है ।
हमारे आपके अंदर भी बहुत सारी सँक्रिँताये विसंगतियां है ।
शिव कॊ भारतीय आध्यात्म मॆ कोई ईश्वर कहता है कोई महेश्वर तो कोई मृत्युंजय ।आज से पूर्व देखे तो शिव कॊ महाकाल, श्मशानी, त्रीलोकीनाथ और निहंगी भी कहाँ जाता है !
हमारे आपके घर मॆ शिव की काल्पनिक तस्वीर जरूर होगा उसमे देखने कॊ मिलता है की शिव भाव के परिधि मॆ जाने पर परस्पर जन्मजात विरोधी पशु - पक्षी भी अपनी मूल स्वभाविक विसंगतियां कॊ छोड़ते है !
इससे स्पष्ट होता है की शिव भाव मॆ विसंगतियां संगति का रुप लेती है । शिव तो शिव भाव के मूल जनक है ।
साहब श्री एक बार कह रहे थे की शिव भाव के शिखर की तलहटी मॆ ही समस्त संक्रिंताये तिरोहित हो जाति है ।
तिरोहित शब्द का अर्थ हुआ स्वयं मीट जाना । इसके लिये अलग से प्रयास नही करने होते है !
हमारे आपके अंदर जगत के प्रति भाव सामंत: होता है क्यों की हम इस जगत मॆ अपने पराये का भेद , जाति सम्प्रदाय का भेद यानी व्यक्ति के पास सामान्यतया जगत का भाव होता है ।
शिव भाव मॆ आने के लिये शिव कॊ ही अपना गुरु बनाना मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा समर्पण होगा ।
0 टिप्पणियाँ