हमारे गुरु शिव (शिष्यानुभूति)


हमारे गुरु शिव (शिष्यानुभूति)
आइये,भगवान शिव को अपना गुरु बनायें।
प्रथम सूत्र:- शिव के शिष्य होने के जिज्ञासुओं एवं शिव शिष्यों में स्वस्फूर्त शिष्यभाव जागरण हेतु आवश्यक है कि शिव गुरु-सत्ता को "हे शिव,आप मेरे गुरु हैं,मैं आपका शिष्य हूं,मुझ शिष्य पर दया कर दीजिए" यह मुक संवाद प्रतिदिन सम्प्रेषित किया जाए।शिव शिष्यता के विचार की आवृत्ति और अपने गुरु शिव से दया की याचना आवश्यक है।
प्रथमत: व्यक्ति यह सूचना प्राप्त करता है कि शिव गुरु हैं। इस विचार के विभिन्न आयामों से अवगत होने के उपरांत वह शिव को गुरु मानने की मन: इस स्थिति में आता है। एतद् वैचारिक तल पर वह शिव को अपना गुरु मानता है। ज्ञातव्य है कि शिव गुरु से भाव स्तर पर ही संपर्क संभव है।अतएव शिव को गुरु मानने के पश्चात इस विचार की आवृत्ति आवश्यक है कि" शिव मेरे गुरु हैं मैं उनका शिष्य हूँ।" शिव के शिष्य होने के विचार का व्यक्ति के मन में घनीभूत होना शिव गुरु के प्रति शिष्य-भाव जागृत करता है। इस विचार की आवृत्ति शिष्य-भाव उत्पन्न करती है। मनुष्य का सामर्थ्य एवं उसकी शक्तियाँ सीमित हैं। पुरुषार्थ की भी सीमा है। शिव शिष्यता के विचार की आवृत्ति हेतु गुरु-दया की याचना अपेक्षित है।महेश्वर शिव का दया भाव ही गुरु भाव है। सद्गुरु मात्र अपनी दया से शिष्य को अपने जैसा बनाते हैं। कहा गया है कि "मोक्ष मूलं गुरुकृपा"। स्मरण रखना है कि गुरु की दया ही शिष्य के जीवन का आधार है।
शिष्य भाव के जागरण हेतु सर्वदा यह स्मरण रखना चाहिए कि शिव मेरे गुरु हैं और गुरु दया ही लौकिक-पारलौकिक चरमोत्कर्ष का रहस्य
      साहब श्री हरींद्रानंद

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ